Sunday, January 10, 2010

आदि से अंत तक

एक शब्द चल पड़ा है, उसी का ये प्रवाह है,
मिलता है उसे अनुरूप संग, यही रस का प्रभाव है|
अर्थ हो, अनर्थ हो, रहे ना कोई आसरा,
ये साज़ का सम्बन्ध है, ये मन का ही लगाव है|

हर चिंगारी का अंत निश्चित है,
अगर संग वायु का अभाव है|
पर अपने किनारे तक बढ़ते रहना ही,
सत्यकाम की दृढ़ता से परिपूर्ण नाव है|

शाश्वत नहीं होता है कुछ भी,
परिवर्तन सृष्टि का स्वाभाव है|
योद्धा रण से नहीं मन से है,
यही तो अविस्म्रणीय वेदों का सुझाव है|

वो सोच स्तम्भ बन सके नहीं,
जिसपे परिस्थितियों का दबाव है|
परिणाम का परिमाण करना,
धैर्यवान में जलती लौ की चाह है|

प्रतिस्पर्धा में प्रधान केवल,
विजय का ही भाव है|
जीत का ही हर तरफ वर्चस्व है,
हार तो सिर्फ एक चुभता हुआ घाव है|

कर्म के पथ पे तो,
बरसता ही पथराव है|
फिर भी अडिग चलने की चेष्ठा करना,
ये एक वीर का चुनाव है|

अमृत मंथन की लालसा में,
खोया सदियों का उन्माद है|
इसमें उलझे रहने से बेहतर तो,
विष पीने में ही प्रह्लाद है|

शब्दों की इस रचना की शक्ति का,
किसी को नहीं आभास है|
क्रांति नहीं पर सोच जीवित रहे,
बस इसी का ये छोटा सा प्रयास है|